रात कुछ अजीब थी
वो कुछ करीब थी
थी कुछ अजीब सी सरगोशी हवाओ में
मेरे रूबरू था सारा जहा ..
जो वो इस कदर मुझको जेह-नसीब थी
था कहा फिर डर मुझे इस ज़माने का
जो साथ थी वो मेरे ..
वो जो मुझ में शरीक थी ..
मगर जब नींद खुली
तो फुटा ये मुकद्दर मेरा
वो महबूबा नहीं ....
मेरे महबूब की फटी तस्वीर थी
रात कुछ अजीब थी ...
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